फिल्म "शाहिद": जांच एजेंसियों की कडवी हकीकत।


बीते रविवार को फिल्म शाहिद देखी। फिल्म को तमाम समीक्षकों ने खूब सराहा है और अपने सितारों वाले मापदंड के मुताबिक इसे कई सितारों से नवाजा है...पर मैं समीक्षकों की ओर से की गई फिल्म की प्रशंसा से प्रभावित होकर इस देखने नहीं गया था। दरअसल फिल्म जिस वकील शाहिद आजमी की कहानी पर आधारित है, वो मेरा अच्छा परिचित था। बतौर पत्रकार मैंने शाहिद का कई बार इंटरव्यू लिया, अदालत में उसके तर्क-कुतर्क सुने और अदालत के गलियारों में वक्त मिलने पर चाय की चुस्कियों के साथ गपशप भी की। शाहिद और मैं हमउम्र ही थे। एक शाम अचानक खबर आई कि शाहिद की गोली मारकर हत्या कर दी गई है। हत्या से चंद दिनों पहले ही एक मित्र के गृह प्रवेश के मौके पर उससे देर तक बात हुई थीं, जिसमें उसने बताया था कि किस तरह से उसकी निजी जिंदगी चुनौतीपूर्ण हो गई थी और किन हालातों में उसे अपनी पत्नी से तलाक लेना पडा। मैं जानना चाहता था कि फिल्मकार ने उसकी कहानी को किस तरह से पेश किया है। ये उम्मीद भी थी कि शायद इस शख्स के बारे में कुछ और भी दिलचस्प जानने को मिल जाये जो कम उम्र में ही आतंकवाद से लेकर पत्रकारिता और वकालत का तजुर्बा हासिल कर चुका था।

मैं कोई फिल्म समीक्षक नहीं हूं, लेकिन फिल्म देखने के बाद ये अहसास हुआ कि फिल्मकार ने शाहिद के व्यकितत्व के साथ इंसाफ करने की ईमानदार कोशिश की है। फिल्म में कई सारी कमियां भी हैं जैसे सांप्रादायिक दंगों के बाद शाहिद का सीधे आतंकवाद से जुडने को विश्वसनीय तरीके से पेश नहीं किया गया है और न ही 26-11 के मुकदमें का फिल्मांकन असल मुकदमें का अहसास देता है (जो कि फिल्म के बाकी हिस्सों में है)। बहरहाल, जो बात इस फिल्म में मुझे सबसे अहम लगी वो थी इसकी ओर से पेश की गई एक कडवी हकीकत। ये हकीकत कि किस तरह से हमारी जांच एजेंसियां तमाम दबावों से प्रभावित होकर आतंकवाद से जुडे मामलों में बेगुनाह लोगों को आरोपी बना देतीं हैं। ऐसे लोग साल दर साल सलाखों के पीछे सडते रहते हैं और असली गुनहगार धमाके पर धमाके करते रहते हैं। फिल्म में जहीर और फहीम नाम के 2 आरोपी जिनके केस शाहिद बतौर बचाव पक्ष का वकील लड रहा था, यही संदेश देते हैं। साल 2002 में हुआ घाटकोपर का बम धमाका, साल 2006 और 2008 में मालेगांव में हुआ धमाका, साल 2006 में मुंबई में हुए लोकल ट्रेनों के बम धमाकों के मामले में जांच एजेंसियों की ओर से की गई गलतियां अब जग जाहिर हैं। जिन लोगों को अदालत मुकदमें के बाद बेगुनाह भी साबित करती है, उनकी जिंदगी शायद ही वापस पटरी पर लौट पाती है। अदालत से बरी होने पर भी जब देश में कहीं कोई धमाका होता है तो पुलिस इन्हें ही सबसे पहले पूछताछ के लिये बुलाती है। हालांकि, मैं इस तरह से बेगुनाहों को आतंकवाद के मामले में फंसाने के लिये सिर्फ जांच एजेंसियों को ही पूरी तरह से जिम्मेदार नहीं मानता हूं। इसके पीछे सियासी दांव पेंच, मीडिया का जरूरत से ज्यादा दबाव और आला पुलिस अफसरों के बीच और अलग अलग जांच एजेंसियों के बीच होने वाली प्रतिद्वंदविता भी शामिल है। ये भी सच है कि कई बार असली आरोपी भी पुलिस की लचर जांच और गवाहों के मुकर जाने की वजह से बरी हो जाता है।


शाहिद कोई मसाला फिल्म नहीं है। न तो इसमें बडे अभिनेता है, न तो कोई आईटम नंबर, न एक्शन, न विदेशी लोकेशन, न अच्छा संगीत, न रोमांस और न कॉमेडी। अगर फिल्म में कुछ देखने लायक है तो वो है इसकी कहानी और नये चेहरों की ओर से किया गया स्तरीय अभिनय। बीते महीने भर में लंच बॉक्स के बाद ये दूसरी ऐसी फिल्म मैने देखी जो कम बजट वाली और आम फिल्मों से हटकर है। जिन लोगों को लंच बॉक्स पसंद आई है, वे इसे पसंद कर सकते हैं।

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