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Showing posts from March, 2015

Hanuman and pursuit of positivity.

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Few years back, after clearing my mind on whether to be an atheist or a believer and if a believer then which faith to believe in, I opted to follow the religion I was born in. However, this blog is not about atheist vs faithful. Here my thoughts pertain to Lord Hanuman, whose birthday will be celebrated by millions of Hindus across the globe this Saturday. While enunciating his concept of “Karmayoga” Swami Vivekanand explained  - "Any religion consists of 3 parts – philosophy, mythology and rituals (or symbols).Philosphy is the essence of every religion; mythology explains and illustrates it by means of the more or less legendary lives of great men, stories and fables of wonderful things and so on. Ritual gives to that philosophy a still more concrete form so that everyone may grasp it. It is easy for men to think that they can understand anything, but when it comes to practical experience, they find that abstract ideas are often very hard to comprehend. Therefore symbols

अंग्रेज चले गये, लेकिन लाल पगडी कायम है !!!

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“ एक दो...एक दो...लाल पगडी फैंक दो ! ” मेरी नानी बतातीं हैं कि जब वो छोटी थीं तो स्कूल में पढनेवाली बाकी बच्चियों के साथ मिलकर ये नारा उस वक्त लगांतीं थीं जब अंग्रेज पुलिस के सिपाही घोडे पर सवार होकर गांव में गश्त के लिये दाखिल होते थे। इस नारे के जरिये अंग्रेजों के खिलाफ विरोध जताया जाता था और अंग्रेजी पुलिस की नौकरी कर रहे भारतियों से अपील की जाती थी कि वे अपनी नौकरी छोड दें। उस वक्त पुलिस यूनिफॉर्म की लाल पगडी अंग्रेजी हूकूमत की पहचान थी और स्वतंत्रता आंदोलन शुरू होने के बाद लोगों में नफरत का प्रतीक भी बनीं। अंग्रेज चले गये और उनके बाद पुलिस का पहनावा भी बदला। अंग्रेजों की लाल पगडी तो हट गई, लेकिन मुंबई में उस जमाने जैसी पगडी अब भी पहनी जाती है और एक व्यवसाय विशेष के लोगों की पहचान का ये हिस्सा है। बाबू शेख आपको मुंबई के सीएसटी रेल स्टेशन के बाहर लाल पगडी पहने घूमता दिख जायेगा। पसीने से तर अपनी शर्ट पर करीब 40 साल की उम्र के बाबू शेख ने कंधे से एक छोटा सा बैग लटका रखा होगा, जिसमें आपको कापुस भरी दिखाई देगी। वो किसी से कुछ कहता नहीं और न तो हाथ में वो कोई तख्ती लेकर घूमता

...जब गांधी अंग्रेजों के प्रति वफादारी को फर्ज मानते थे !

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वो किताब जिसे जस्टिस काटजू को पढना चाहिये जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने एक ब्लॉग लिखा है, जिसमें महात्मा गांधी को उन्होने अंग्रेजों का एजेंट साबित करने का प्रयास किया। काटजू के मुताबिक गांधी अपनी गतिविधियों में हिंदुत्व से जुडी बातें करते थे, जैसे रामभजन का गाया जाना, गोरक्षा की हिमायत, ब्रह्मचर्य का समर्थन वगैरह जिससे कि अंग्रेजों की “ डिवाईट एंड रूल ” की नीति को फायदा पहुंचता था। मेरा ये ब्लॉग काटजू के ब्लॉग का जवाब तो नहीं है, लेकिन उनके ब्लॉग ने मुझे ये बताने के लिये प्रेरित किया है कि गांधी ने कभी अंग्रेजों के प्रति अपनी वफादारी को छुपाया नहीं। उम्र के चालीसवें दशक में पहुंचने तक वे अंग्रेजी साम्राज्य के हिमायती थे, उसके शुभचिंतक थे। इस बात का जिक्र गांधी ने खुद अपनी आत्मकथा – “ सत्य के प्रयोग ” में कम से कम 3 मौकों पर किया है। अपनी पहली अफ्रीका यात्रा के बारे में बताते वक्त गांधी ने लिखा – “ शुद्ध राजनिष्ठा जितना मैने अपने में अनुभव की है, उतनी शायद ही दूसरे में देखी हो। मैं देख सकता हूं कि इस राजनिष्ठा के मूल सत्य पर मेरा स्वाभाविक प्रेम था। राजनिष्ठा अथवा दूसरी किसी व