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Showing posts from April, 2015

भूकंप : टोक्यो का तजुर्बा

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15 मार्च 2011, टोक्यो, रात के करीब 11.30 बजे। शिंजुकू इलाके के सनराईज होटल की तीसरी मंजिल के अपने कमरे में मैं दिनभर कवर की गई खबरों की स्क्रिप्ट लैपटॉप पर टाईप कर रहा था। टेबल के बगल में लगे बेड पर कैमरामैन हाशिब खान सो रहा था। दिनभर खबरों के लिये मेरे साथ भटकने के बाद थकान के मारे उसे बेड पर लेटते ही नींद आ गई थी। मैने सोचा था कि स्क्रिप्ट भेज देने के बाद खाना खाने के लिये उसे जगाऊंगा। अचानक मेरा लैपटॉप अपनी जगह से हिलने लगा। मैं अक्षर कुछ और टाईप करने जाता, उंगलियां किसी और अक्षर पर पडतीं। मुझे लगा शायद नींद या थकान की वजह से ऐसा हो रहा है, लेकिन कुछ पलों में लैपटॉप अपनी जगह से पीछे खिसकने लगा। ऐसा लगा कोई अदृश्य शख्स उसे अपनी ओर खींच रहा है। किसी हॉरर फिल्म के जैसा माजरा लग रहा था। पहले तो कुछ समझ नहीं आया फिर महसूस किया कि कमरे की हर चीज हिल रही थी। टेबल, उसपर रखा गुलदस्ता, चाय के कप, लैंप...सबकुछ। समझते देर न लगी कि ये भूकंप के झटके हैं। मैने हाशिब को हिलाकर जगाया –  उठ हाशिब! चल भाग जल्दी! भूकंप आया है! हाशिब ने तुरंत कैमरा उठाया, मैने एक छोटे बैग में दोनो के पासपोर्ट और

मन की रेल न हो सकी मोनोरेल !

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दिल्ली के रेल संग्रहालय में भारत की पहली यात्री मोनोरेल रेल सफर और रेलगाडियों में बचपन से खास दिलचस्पी रही है। साल 2008 में जब मैं वडाला के भकित पार्क में रहने गया तो ये जानकर खुशी हुई कि यहां से मोनोरेल लाईन गुजरने वाली है जो मुंबई के उत्तर-पूर्वी उपनगर चेंबूर को दक्षिण मुंबई के सात रास्ता तक जोडेगी। मोनोरेल की सवारी मैं क्वालालुमपुर में मलेशिया के सफर के दौरान कर चुका था और वो मुझे पसंद आई। मुझे लगा कि मोनोरेल रोजाना मेरे घर से दफ्तर आने जाने का माध्यम बन जायेगी। ट्रैफिक जाम में वक्त और कार के ईंधन की बर्बादी नहीं होगी और न ही मानसिक थकान झेलनी होगी। मेरा दफ्तर सातरास्ता के करीब महालक्ष्मी में था। खैर 2014 मे मोनोरेल शुरू होने के 2 साल पहले ही यानी 2012 में ही एबीपी न्यूज का दफ्तर महालक्ष्मी से अंधेरी आ गया। सात रास्ता तक लाईन अभी भी शुरू नहीं हुई है। मोनोरेल तो मेरे काम की नहीं निकली लेकिन अंधेरी में दफ्तर पहुंचने के लिये मेट्रो रेल का इस्तेमाल करने मुझे मिल रहा है।    हाल ही में एबीपी न्यूज के लिये स्पेशल रिपोर्ट पर काम करते हुए मोनोरेल की सवारी का मौका मिला। उसकी तमाम

किसने दी नारायण राणे को चुनाव लडने की सलाह?

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श्रीरामचरितमानस में एक चौपाई है- "जानबूझि जे संग्रह करिहि कहो उमा ते काहे न मरहि" नारायण राणे की हार के बाद अब इस सवाल का विश्लेषण हो रहा है कि आखिर वे क्यों हारे, लेकिन मेरी नजर में उससे बडा सवाल ये है कि आखिर उन्होने ये चुनाव ही क्यों लडा ? किसीकी सलाह थी या फिर कोई मजबूरी ? राणे ने क्यों अपने सियासी करियर के साथ एक बडा जुआं खेला ? मुंबई के उपनगर बांद्रा पूर्व की विधानसभा सीट, महाराष्ट्र की सत्ताधारी पार्टी शिवसेना का गढ रही है। बीते विधानसभा चुनाव में यहां से शिवसेना के बाला सावंत विधायक चुने गये थे। चंद दिनों पहले वे अचानक चल बसे, जिसके बाद यहां उपचुनाव घोषित हुआ। चुनाव में शिवसेना ने बाला सावंत की पत्नी तृप्ति सावंत को टिकट दिया।नारायण राणे जिस कांग्रेस पार्टी के उम्मीदवार थे, उसकी हालत साल 2014 के विधानसभा चुनाव में इस सीट पर काफी खराब थी। करीब 12 हजार वोट पाकर कांग्रेस यहां चौथे नंबर पर थे। चुनाव जीतने वाले शिवसेना के दिवंगत उम्मीदवार बाला सावंत को 41388 वोट मिले थे, दूसरे नंबर पर बीजेपी थी जिसे 25791 वोट मिले और तीसरे नंबर पर ओवैसी बंधुओं की पार्टी आल