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Showing posts from 2016

एक महीने बाद : नोटबंदी, नरेंद्र मोदी और नजरिया।

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बात 2007 की है। गुजरात विधानसभा चुनाव के नतीजे आ गये थे। बीजेपी फिर एक बार भारी बहुमत से जीती थी। नरेंद्र मोदी नतीजे वाली शाम जीत के बाद चुनाव क्षेत्र मणिनगर में अपनी पहली जनसभा संबोधित करने जा रहे थे। मंच के ठीक सामने की ओर अपना कैमरा लगाकर मैं कवरेज कर रहा था। स्थानीय नेताओं के भाषणों के बाद मोदी जैसे ही माईक के सामने बोलने के लिये खडे हुए वहां मौजूद भीड बडी देर तक तालियां बजाती रही और मोदी की वाहवाही के नारे लगाती रही। चंद मिनटों बाद ये शोर थम गया। सभा में मौजूद लोग शांत हो गये कि अब मोदी को सुनते हैं...लेकिन मोदी कुछ नहीं बोले...करीब 30-40 सेकंड तक मौन रहे और अपने सामने  मौजूद भीड को निहारते रहे।...फिर उन्होने पहली लाईन कही – “ ये मेरे मौन की विजय है ” । सभास्थल फिर एक बार तालियों की गडगडाहट और नारों से गूंज उठा। मोदी की इस अदा ने उस वक्त मुझे भी उनका प्रशंसक बना दिया। उस चुनाव के दौरान जो कुछ भी हुआ था उसे जानकर मोदी का ये कहना कि “ ये मेरे मौन की विजय है ” के मायने मैं समझ रहा था। ये वाकई में मोदी के मौन की विजय ही थी। मोदी उस वक्त कईयों के निशाने पर थे। कांग्रेस अध्यक्

हमारा सिर बचाने के लिये अपना सिर गंवाती पुलिस !

पुलिस क्या है ? समाज के बीच से समाज की सुरक्षा के लिये चुने गये चंद लोगों की एक संस्था। किसी पुलिसकर्मी की हत्या, समाज की आत्मा पर आघात है। आज पुलिसकर्मी हमारे कश्मीर को भारत से जोडे रखने के संघर्ष में भी मारा जा रहा है और मुंबई में ट्राफिक नियमों पर अमल करवाने के लिये भी। दोनो मामलों में मैं समानताएं देखता हूं। भारत माता की तस्वीर में जहां माता का सिर दिखता है नक्शे में उस जगह पृष्ठभूमि में कश्मीर होता है। मुंबई में जिन पुलिसकर्मी विलास शिंदे की हत्या हुई वो हेलमेट पहनने वाले नियम पर अमल करवा रहे थे। हेलमेट पहनने का वो नियम जो वाहन चालक की सिर की सलामती के लिये बनाया गया था। लोग हेलमेट पहनकर दुपहिया चलायें तो उनका सिर सलामत रहे। दोनो मामलों की तुलना का उद्देश्य इतना ही है कि आज पुलिस कहीं देश के शरीर का सिर बचाने के लिये जान दे रही है तो कहीं नागरिकों का सिर बचाने के लिये अपना सिर फोडवा रही है। दुखद है कि हम मौजूदा हो हल्ले के चंद दिनों बाद विलास शिंदे जैसे शहीदों को भूल जायेंगे और उनका नाम भी सिर्फ ड्यूटी पर मारे गये पुलिसकर्मियों के आंकडे में सिमट कर रह जायेगा, जैसा कि कश्मीर म

मुंबई पुलिस के इतिहास का वो काला अगस्त !

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बबन जाधव के साथ स्वतंत्र भारत की मुंबई पुलिस के इतिहास में 2 काले अगस्त आये हैं। 11 अगस्त 2012 को मुंबई के आजाद मैदान के बाहर जो कुछ भी हुआ उसकी यादें अभी भी ताजा हैं। उस दोपहर पुलिसकर्मियों पर हमला किया गया, कईयों को दंगाईयों ने पीटपीट कर अधमरा कर दिया, पुलिस के वाहन जलाये गये और महिला पुलिसकर्मियों की इज्जत पर हाथ डालने की कोशिश हुई...वाकई पुलिस के लिये बेहद शर्मिंदगी का दिन था ! ....लेकिन अबसे 34 साल पहले भी 1982 में अगस्त के महीने में ही एक ऐसा वक्त आया था जब मुंबई पुलिस बहुत बुरे दौर से गुजरी। उस दौरान मुंबई पुलिस के कर्मचारियों के एक वर्ग ने बगावत का ऐलान कर दिया था। 11 अगस्त 2012 को आजाद मैदान के बाहर जो कुछ हुआ उसे तो मैने खुद देखा, लेकिन 19 अगस्त 1982 को जो कुछ हुआ उसकी कहानी सुनाई मुझे बबन जाधव ने। बबन जाधव अब उन गिनेचुने जिंदा बचे पुलिसकर्मियों में रह गये हैं जो उस पुलिस बगावत में शामिल हुए थे। बबन जाधव से मेरी दोस्ती साल 2003 में हुई थी जब बैन लगने के बाद पकडे गये सिमी के सदस्यों को कुर्ला कोर्ट में पेश किया जा रहा था और तब जाधव कोर्ट की सुरक्षा के प्रभारी थे।

मुंबई और रंगभेद : हम काले हैं तो...

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“ ऐ कल्लू मामा ! ” “ तेरा क्या होगा कालिया ! ” “ निग्रो है निग्रो ! ” “ ऐ ब्लैक मैंबो ! ” “ ओय काले भैंसे ! ” ये कुछ ऐसे शब्द हैं जो मुंबई में पढाई, कारोबार या पर्यटन के लिये आने वाले हर अफ्रीकी नागरिक को आये दिन सुनने पडते हैं। रंगभेद समाज की नजर का वो दोष जो इंसान की कीमत उसकी चमडी के रंग से आंकता है। दुनिया भले ही इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में पहुंच गयी है लेकिन रंगभेद अब भी बरकरार है। इसे देखने के लिये यूरोप या अमेरिका जाने की जरूरत नहीं है। हाल ही में दिल्ली और गोवा में भी रंगभेद से जुडी घटनाएं हुईं। भारत के सबसे आधुनिक शहर मुंबई में भी ये खुलेआम नजर आता है। मुंबई में बडे पैमाने पर अफ्रीकी देश जैसे नाईजीरिया, केन्या, घाना, युगांडा, कैमरून, तंजानिया, सोमालिया और इथियोपिया के छात्र मैनेजमेंट, इंजानियरिंग, मास कॉम्यूनिकेशंस जैसे विषयों की पढाई करने के लिये मुंबई आते हैं और यहां लगभग सभी के साथ ऐसे अनुभव हुए हैं जो उनके शरीर के रंग से जुडे हैं। हाल ही में मेरी मुलाकात चंद दक्षिण अफ्रीकी छात्रों से हुई और उनकी आपबीती सुनने के बाद मुझे दुख भी हुआ, शर्मिंदगी भी हुई

डिलाईल रोड का भूषण फंस गया पाकिस्तान में !

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मुंबई के रहने वाले कुलभूषण जाधव का नाम इस वक्त खबरों में है। कुलभूषण को भारत के लिये जासूसी के आरोप में पाकिस्तानी एजेंसियों ने पकडा है। कुलभूषण का नाम भले ही पहली बार खबरों में आया हो, लेकिन उनका परिवार पहले भी खबरों में रह चुका है। कुलभूषण के बचपन के दोस्तों, उसके सहपाठियों और पडोसियों से मिली जानकारी के आधार पर उसके परिवार की जो तस्वीर उभरती है, वो यहां पेश है। डिलाईल रोड से नाता। कुलभूषण के पिता सुधीर जाधव और चाचा सुभाष जाधव दोनो ही मुंबई पुलिस में बतौर एसीपी रैंक पर रिटायर हुए। दोनो ही पुलिस में थे और दोनो ही एक ही पद से रिटायर हुए, लेकिन दोनों की सोच में बडा फर्क था और दोनो की एक दूसरे से अनबन थी। कुलभूषण के पिता सुधीर जाधव की इमेज बडे ही ईमानदार पुलिस अधिकारी थी। उनके पुलिसिया करियर में कभी विवाद नहीं हुआ। डिलाईल रोड में जहां आज क्राईम ब्रांच की यूनिट 3 का दफ्तर है, उसी के ऊपर पुलिस क्वाटर्स में पहली मंजिल पर सुधीर जाधव का घर था। सुधीर जाधव का मराठी के सांस्कृतिक, सामाजिक और कलाजगत से जुडे लोगों से अच्छी दोस्ती थी और ये लोग अक्सर पूजा इत्यादि जैसे पारिवारिक समारोह

संजय तू बातों से मानेगा या…? मुन्नाभाई की कहानी, जेलर की जुबानी।

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अंग्रेजी हूकूमत के दौर में बनाई गई मुंबई की आर्थर रोड जेल अपनी चारदीवारी के बीच एक इतिहास समेटे है। अगर बीते डेढ दो दशक की ही बात करें तो आर्थर रोड जेल में ऐसी शख्ससियतें कैदी बनकर आ चुकीं हैं जो कि मुंबई में खूनखराबे, आतंक और खौफ के लिये जिम्मेदार रहीं। ऐसे लोगों से जेल में सामना होता था महाराष्ट्र जेल की डीआईजी स्वाती साठे का जो कि 2 बार इस कुख्यात आर्थर रोड जेल की सुपिरिंटेंडेंट रह चुकीं हैं। स्वाती साठे के कार्यकाल में अरूण गवली, अबू सलेम, मुस्तफा दोसा, याकूब मेमन, अजमल कसाब, अश्विन नाईक जैसे खतरनाक नाम तो उनके कैदी बने ही साथ ही गैरकानूनी हथियार रखने के गुनहगार फिल्मस्टार संजय दत्त को भी सबसे लंबे वक्त तक उन्होने ही जेल में देखा। Swati Sathe, DIG (Prisons), Maharashtra. एक फिल्मी हस्ती जो ऐशोआराम की जिंदगी जी रहा हो, जो महंगी विदेशी शराब पीता हो, जिसका खाना सात सितारा रेसतरां में होता हो, जो चलते वक्त लाखों के कपडे, घडी और चैन से लदा हुआ होता हो, उसे अगर अचानक जेल की कांटोभरी जिंदगी जीने के लिये कह दिया जाये तो इस बदलाव से वो कैसे संघर्ष करता है, ये स्वाती साठे ने